भावनात्मक संतुलन की आवश्यकता
हनुमानजी के सामने अत्यंत भावुक होने का सबसे पहला और जबर्दस्त प्रसंग तब आया था, जब वे अशोक वाटिका में सीताजी को पहली बार देखते हैं। हम मान सकते हैं कि सीताजी का यह करुण दृश्य हनुमान के सीने में तीर की तरह बिंध गया होगा। जब सीताजी नहीं मानतीं, तब रावण सीता को मारने तक दौड़ता है। लेकिन वे हनुमानजी, तो सीताजी का पता लगाने आए हैं, जो राम के प्रति इतने एकनिष्ठ हैं, चुपचाप बैठे रहते हैं। उद्वेलित होने से रही-सही बात भी बिगड़ जाएगी। इसी प्रकार उनकी आंखों के सामने यदि लक्ष्मण के मूच्र्छित शरीर की तस्वीर है, तो रोते हुए श्रीराम का दृश्य भी है। किसी भी महान् और शक्तिशाली व्यक्ति की डबडबाई आंखों में बाढ़ से भी अधिक प्रलयंकारी शक्ति होती है। हनुमान ने श्रीराम को उन डबडबाई आंखों को देखा है। इसके बावजूद वे विचलित नहीं हुए।
आत्मशक्ति का महत्व
आत्मा की ताकत या मस्तिष्क की ताकत कह लें, जो किसी भी आदमी को कठिन से कठिन घड़ी तथा पराजय के क्षणों तक में टूटने से, झुकने से बचाए रखती है, संभाले रखती है। उद्देश्य की यही पावनता और एकनिष्ठता नेल्सन मण्डेला को उनतीस वर्षों तक जेल में सीखचों के पीछे अकंपित लौ की तरह जलाए रखती है और सरदार भगत सिंह को जिंदगी के लिए माफीनामा मांगने से इंकार करवाते हुए हंसते-हंसते फाँसी के फंदे पर झूल जाने को तैयार कर देती है।
सच यही है कि हमें कोई दूसरा कमजोर नहीं करता। हमें कोई दूसरा कमजोर कर ही नहीं सकता, बशर्ते कि हम स्वयं कमजोर होना न चाहें। हम खुद ही खुद के लिए परिस्थितियों एवं विचारों का एक ऐसा मकडज़ाल बुनते चले जाते हैं कि वह मकडज़ाल ही हमारे लिए सब कुछ बन जाता है।
जितनी अधिक और कठिन बाधाएं उतनी ही बड़ी सफलता
हनुमान जी सीता का पता लगाने का बीड़ा उठाकर जैसे ही आसमान में उडऩा शुरु करते हैं, सफलता का प्राकृतिक नियम यह है कि जिस सफलता की राह में जितनी अधिक और जितनी कठिन बाधाएं होंगी, वह सफलता उतनी ही बड़ी होगी।
यह विज्ञान का ही नियम है कि धनात्मक और ऋणात्मक शक्तियां मिलकर ही इस प्रकृति का संचालन कर रही हैं। स्त्री और पुरुष ये दो भिन्न भाव हैं। सीधी सी बात है कि यदि एक ही तत्व हो, तो फिर उस तत्व का और विस्तार तब तक संभव नहीं होगा, जब तक कोई दूसरा तत्व उसमें शामिल न किया जाए।
यह दूसरा तत्व पहले तत्व का जितना अधिक विरोधी होगा, उसके शामिल किए जाने से बने हुए तत्व में उतनी ही अधिक शक्ति होगी, प्रचंडता होगी। अन्यथा जो कुछ जैसा भी है, वैसा ही चलता रहेगा। हम किसी भी प्रकार के नए की उम्मीद नहीं कर सकते। संघर्ष हम अपनी परिस्थितियों से करते हैं, अपने आपसे करते हैं और प्रकृति से करते हैं। जबकि हमारा विरोध करने वाला एक जीता-जागता इंसान होता है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हारने वाले की इस तात्कालिक हार में कहीं न कहीं भविष्य की जीत के बीज छिपे रहते हैं, क्योंकि इस विरोध ने उसे ऐसे विरोध से निपटने के लिए पहले से कहीं अधिक मजबूत तो बना ही दिया है।
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