21 नवंबर यानी वर्ल्ड टेलीविज़न डे (World Television Day), ये दिन हमें याद दिलाता है कि टेलीविज़न सिर्फ़ एक मशीन नहीं बल्कि हमारी सोच, विचारों, भावनाओं और बदलावों का भी एक सशक्त माध्यम है। इस Idiot Box ने भारत में ना सिर्फ़ मनोरंजन दिया है, बल्कि समाज को सोचने, समझने, और गढ़ने का तरीका भी सिखाया है।
मनोरंजन से बढ़कर: टेलीविज़न – एक सामाजिक शिक्षक
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भारत में देश की राजधानी दिल्ली से 15 सितंबर, 1959 को शुरू हुआ टेलीविज़न, दूरदर्शन की शक़्ल में आया, लेकिन धीरे-धीरे ये हर भारतीय घर की ज़रूरत बन गया। दूरदर्शन, जहां से लोग देश-दुनिया की झलक, अपनी संस्कृति और दुनिया की सोच साझा करते नए विचार देखते थे। “हम लोग”, “बुनियाद”, “रामायण” जैसे धारावाहिकों ने परिवार, संस्कार और कई तरह के संघर्षों की गहराई को दिखाया। उस दौर में टेलीविज़न सिर्फ़ मनोरंजन का एक साधन नहीं था नहीं, बल्कि इसने एक सामाजिक शिक्षक की भूमिका भी निभाई।
टीवी: भारत की साझा पहचान का सेतु
ये टेलीविज़न ही तो है, जिसने भारत जैसे विविध भाषाओं और संस्कृति वाले देश में ख़ुद की एक साझी पहचान बनाई। ये वो दौर था, जब “रामायण” या “महाभारत” के प्रसारण के समय सड़कें ऐसे ख़ाली हो जाया करती थीं, मानो इलाक़े में कर्फ़्यू लग गया हो। सिर्फ़ एक परिवार ही नहीं, बल्कि पूरा मोहल्ला एकसाथ इसे देखता था। ये सिर्फ़ धार्मिक कार्यक्रम नहीं, बल्कि समाज के हर वर्ग को बिना किसी भेदभाव के जोड़ने का एक माध्यम भी बना।
“भारत एक खोज”, “टर्निंग पॉइंट”, “शक्तिमान” जैसे कार्यक्रमों ने बच्चों में सीखने की ललक पैदा की। कृषि, स्वास्थ्य और विज्ञान से जुड़े कार्यक्रमों ने गांवों तक वैज्ञानिक समझ को आसान भाषा में पहुंचाया। दूरदर्शन का ध्येय वाक्य “सत्यम् शिवम् सुंदरम्” सिर्फ़ कुछ शब्द नहीं, बल्कि सामाजिक दृष्टिकोण का प्रतिविम्ब कहे जा सकते हैं।
आधुनिक होते भारत के दौर में “सत्यमेव जयते”, “बालिका वधू” और “उड़ान” जैसे कार्यक्रमों ने समाज में लिंग समानता, शिक्षा और सामाजिक न्याय को चर्चा का एक ज़रूरी हिस्सा बनाया। “हम लोग” की बिंदिया हो या “उड़ान” की कविता चौधरी, इस टीवी ने भारतीय महिला को सिर्फ़ गृहिणी नहीं, बल्कि संघर्ष और आत्मनिर्भरता की प्रतीक बनाकर पेश किया। एक तरह से टीवी उन मुद्दों को सामने लाया, जिन्हें समाज अक्सर अनदेखा कर देता था.. और ये बदलाव किसी आंदोलन से कम नहीं था।
टेलीविज़न भारत की भाषाई, सांस्कृतिक और धार्मिक विविधता को एक मंच पर लाने का एक मज़बूत माध्यम बना। उत्तर से लेकर दक्षिण तक, पूर्व से लेकर पश्चिम तक.. टीवी ने सबको एक फ़्रेम में बांध दिया।
डिजिटल दौर में टीवी का नया रूप
हालांकि वक़्त के साथ टीवी की सूरत और सीरत, दोनों में बदलाव भी आया। अब ये एक मल्टी-स्क्रीन का एक्सपीरियंस दे रहा है.. बस, रिमोट उठाओ और बदल दो स्क्रीन। रफ़्तार पकड़ चुकी दुनिया Netflix, Amazon Prime, Jio Hotstar जैसे प्लेटफ़ॉर्म्स ने टीवी देखने की वजहों को और व्यापक कर दिया है। जहां पहले सीमित कार्यक्रम और चैनल हुआ करते थे,
वहीं आज दर्शक तय करते हैं कि क्या, कहां और कब देखना है। टेलीविजन अब हर बुधवार ठीक 8 बजे आने वाले चित्रहार की तरह समय की सीमा से बंधा हुआ नहीं रह गया है, बल्कि ऑन-डिमांड हो चुका है, यानी जब चाहो, जहां चाहो और जैसा चाहो। OTT ने कंटेंट की ताक़त को जनता के हाथों तक पहुंचा दिया है। कहा जा सकता है कि ये एक तरह का लोकतांत्रिक बदलाव ही है, जो इस बुद्धू बक्से की ही देन है, An Idiot Box जिसने लोगों को बहुत कुछ सिखाया।
आने वाले वक़्त में टेलीविजन और डिजिटल मीडिया का गठजोड़ इस ताक़त को बेहिसाब बना सकता है। AI-Generated Anchors, Personalized News Feeds, और Interactive Learning TV लोगों के अनुभव को और ज़्यादा व्यक्तिगत और व्यापक बनाएंगे। कुल मिलाकर टेलीविज़न ने समाज को सोचना, महसूस करना और दुनिया से जुड़ना सिखाया।
ये एक ऐसा माध्यम है जिसने हमें दिखाया कि ये समाज को बदलने की ताक़त रखता है.. और हर युग में, ये बदलाव की मशाल यूं ही जलाता रहेगा। वर्ल्ड टेलीविज़न डे हमें याद दिलाता है कि चाहे स्क्रीन छोटी हो गई हो या स्मार्ट, टीवी आज भी हर घर की धड़कन है। ये माध्यम हमें सिर्फ़ मनोरंजन नहीं देता, बल्कि एक नज़रिया, एक सोच और एक पहचान देता है।
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डॉ. प्रभात कुमार शर्मा (वरिष्ठ पत्रकार)