“चाँद तले आधी रात में,
बैठा शीश झुकाए वो,
मंद- मंद शीतल बयार में,
भी हाय ! झुलसा जाए वो”
“नीरव रात्रि! शब्दहीन प्रकृति,
व्याकुल ऊपर नीचे श्वास,
गंध उसकी यही बसी है,
दिया है जिसने हृदय में त्रास”
“अकुलाहट के मारे भाव,
पीड़ाओं से बहल गये ,
जमे हृदय में दर्द के मोती,
अश्रु बनकर पिघल गये”
“मैं वसुधा पर पड़ी अकेले,
प्रकृति मुझसे आकर बोले, पाल नाव की उखड़ गई है,
बीच धार में अब ये डोले,
“जीवन भटकी नाव सरीखा,
कभी कसैला कभी है फीका,
रंग जब इसके उजड़ गये हैं,
तब रंगों का मोल है सीखा”
“दुख का आज मनाना उत्सव,
बहुत रो लिए पीड़ाओं पर,
चलो निराशाओं से खेले,
करे प्रहार बाधाओं पर”
“मन रोये तब भी मुसकाले,
कोई घाव दे उसको सहला ले,
हो दर्द तो सहना आ जाए, इस दर्द को आए बहला लें “।।।
लक्ष्मी शर्मा
स्वतंत्र पत्रकार