तानिया शर्मा
जहां चाह होती है, वहां राह होती है। सिरोही के किसान ने अपने खेतों में बागवानी करने की शुरुआत 5 साल पहले की थी। इलाहाबादी अमरूद के उन्होंने काफी चर्चे सुने थे। उन्होंने तय किया सिरोही में सबसे मीठा अमरूद उगाएंगे।
उन्होंने 40 बीघा में अमरूद की पौध लगाई और अब 4 वैरायटी के अमरूद का उत्पादन ले रहे हैं। अमरूद इतना मीठा है कि लोग उनके फार्म हाउस पर मिनी ट्रक लेकर अमरूद खरीदने पहुंचते हैं। म्हारे देस की खेती में आज बात सिरोही के किसान मालदेव सिंह की।
अरावली की पहाड़ियों के बीच सिरोही का छोटा सा गांव है अरठवाड़ा। अरठवाड़ा के अमरूद इलाके में काफी पॉपुलर हो रहे हैं। शिवगंज-सुमेरपुर सहित आस-पास के इलाके के बाजारों में अरठवाड़ा के अमरूद की भारी डिमांड है।
सिरोही से शिवंगज रोड पर 25 किलोमीटर दूर मेन हाईवे से लगता फार्म हाउस है मालदेव सिंह का। हम अरठवाड़ा में मालदेव के 120 बीघा में फैले फार्म हाउस पर पहुंचे तो 42 साल के किसान मालदेव को देख हैरान रह गए। भारी शरीर, जींस और शर्ट में वे किसी व्यापारी जैसे लगे। पूछा तो हंसकर कहा कि बागवानी खेती कम और व्यापार ज्यादा है।
तीन साल में अमरूद का उत्पादन
मालदेव ने 2017 में अमरूदों की पौध लगाना शुरू किया था। दो साल बाद प्रोडक्शन मिलना शुरू हो गया। 2019 में अमरूद की पहली खेप निकली। 120 बीघा में से 40 बीघा खेत में मालदेव ने 4 वैराइटी के अमरूदों के पेड़ लगा रखे हैं। पेड़ों की ऊंचाई 4 फीट से 8 फीट तक है।
इनमें ताइवान पिंक, थाई व्हाइट, ललित गुवावा और बरफखान शामिल हैं। मालदेव ने कहा कि वे अमरूद के पौधों के लिए घर में तैयार नीम, गोबर, गोमूत्र से तैयार जैविक खाद का इस्तेमाल करते हैं। इससे जो पेड़ 25 किलो फल देने की क्षमता रखता था, उससे 100 किलो तक फल हासिल किए हैं। साथ ही केमिकल यूज नहीं करने के कारण अमरूद की मौलिक मिठास भी बरकरार रही।
मालदेव सिंह ने कहा कि अमरूद के पौधों को गोबर से कई तत्व मिल जाते हैं। कुछ मात्रा में कैल्शियम व नाइट्रेट का इस्तेमाल किया जा सकता है। नीम का स्प्रे करने से पत्ता मुलायम होता है और फल सुरक्षित रहता है।
उन्होंने बताया कि आंध्र प्रदेश के विजयवाड़ा से करीब 125 किलोमीटर दूर एंडीगुड़ी गांव से थाई गुआवा के 900 और ताइवान पिंक के 4000 पौधे मंगवाए, जबकि बरफखान के और ललित नस्ल के पहले 5000 तथा बाद में 6000 और पौधे उत्तर प्रदेश के मालिहाबाद से मंगवाए। बरफखान नाम के व्यक्ति ने ही इस किस्म को तैयार किया था। इसकी राजस्थान में काफी डिमांड है।
पौधों के लिए इस तरह तैयार की जमीन
मार्च महीने के पहले सप्ताह में ढाई से 3 फीट गहरे और 2 फीट चौड़े गड्ढे खोदे। गड्ढों को धूप में छोड़ दिया। एक महीने बाद 15 किलो गोबर की खाद और एक से डेढ़ किलो नीम की खली मिट्टी में मिला कर गड्ढे में छोड़ दी। उसके बाद पौधा लगाया। बरसात से पहले रोपे गए पौधे आसानी से लग जाते हैं। बारिश में अच्छी और तेजी से इनकी ग्रोथ होती है। पहले और दूसरे साल पौधे की देखभाल की जाती है। तीसरे साल से प्रोडक्शन शुरू हो जाता है।
मालदेव सिंह 12वीं तक पढ़े हैं। वे अपने 3 बच्चों को अच्छी शिक्षा के लिए उदयपुर में पढ़ा रहे हैं। 12 साल की बेटी व 10 और 8 साल के दो बेटे हैं। बड़ी बेटी काव्यांजलि देवड़ा, बेटा रूद्रदेव सिंह और तीसरा बेटा आराध्यदेव सिंह उदयपुर में पढ़ाई कर रहे हैं। मालदेव ने कहा कि बच्चे अपने पसंदीदा क्षेत्र एक अच्छे किसान के रूप में पिता दादा और परदादा के पद चिह्नों पर चलकर लोगों की सेवा करते रहें, मालदेव के पिता दलपत सिंह गांव के सरपंच थे। मां शायर कुंवर भी दो साल सरपंच रही। ऐसे में नेतृत्व के गुण उन्हें विरासत में मिले। अब मालदेव सिंह खेती-किसानी के जरिए किसानों को उत्तम बागवानी के लिए प्रेरित कर रहे हैं।
नवंबर से सीजन शुरू
अमरूदों का सीजन नवंबर से शुरू हो जाता है। यह चार महीने यानी फरवरी तक चलता है। मालदेव के खेत में करीब 20 हजार पेड़ हैं जिसने औसतन 100 किलो प्रति पेड़ उत्पादन हो रहा है। इस तरह एक सीजन में मालदेव 20 हजार क्विंटल अमरूद का उत्पादन ले रहे हैं। यह अमरूद 50 से 150 रुपए किलो तक बिकता है। इस तरह सालाना आय 18 से 20 लाख तक हो जाती है। सर्दियों में अमरूद के अलावा गर्मी के लिए मालदेव खरबूजे की खेती करते हैं। इसके अलावा बाकी बचे खेतों में सीजनल क्रॉप उगाते हैं।
मालदेव ने बताया कि अमरूद की फसल करना आसान नहीं है। कई चुनौतियां सामने होती हैं। इनमें फल मक्खी और पैरेट का अटैक सामान्य बात है। लेकिन सबसे बड़ी चुनौती इलाके में भूजल की भारी कमी है। जिसके चलते उन्हें इस साल 10 बीघा से पिंक ताइवान को हटाना पड़ा।
अमरूद की फसल की चुनौतियां
मालदेव ने कहा कि सिरोही की मिट्टी अमरूद के लिए अच्छी है, लेकिन बड़ी चुनौती है इस फल में लगने वाली मक्खी। फल पकने पर यह नर मक्खी फल में घुस जाती है। इसे कीड़ा लगना कहा जाता है। इसके लिए ट्रैप लगाया जाता है। ट्रैप में खेत में निश्चित दूरी पर ऊंचाई पर टिकिया बांधी जाती है। टिकिया एक ट्रैप होती है जिसमें मक्खी फंस जाती है। एक यू-ट्यूब वीडियो में पाकिस्तानी किसान ने बताया कि ट्रैप में मादा मक्खी की सुगंध होती है, जिससे अट्रैक्ट होकर मक्खी ट्रैप हो जाती है और अमरूद बच जाता है। मैंने भी ट्रैप का इस्तेमाल किया, लेकिन फायदा नहीं हुआ। इसके बाद ट्रैप हटा दिया। नीम का स्प्रे किया। इससे 70 फीसदी फसल बिना ट्रैप ही बच गई।
तोते अमरूद का बड़ा नुकसान करते हैं। ये झुंड में आते हैं और पके हुए अमरूदों पर टूट पड़ते हैं। पहले तोतों को उड़ाने के लिए पोटाश गन का इस्तेमाल करता था। अब उसे बंद कर दिया है। तोते मीठे अमरूद को चोंच मारते हैं। ये फल भी लोग बंदरों के लिए खरीदकर ले जाते हैं।