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तीर्थराज पुष्कर : सब तीर्थों का गुरू

रचना और महत्त्व :
पुष्कर की रचना के बारे में अनेक कहानियां प्रचलित हैं। पुष्कर का अर्थ है एक ऐसा सरोवर जिसकी रचना पुष्प से हुई हो। पुराणों के अनुसार ब्रह्मा ने अपने यज्ञ के लिए एक उचित स्थान चुनने की इच्छा से यहां एक कमल गिराया था इसी से इसका नाम पुष्कर हुआ। एक अन्य कथा के अनुसार समुद्र मंथन से निकले अमृत को छिनकर जब राक्षस भाग रहे थे तब उनमें से कुछ बूंद सरोवर में गिर गई। तभी से यहां की झील का पानी अमृत के समान स्वास्थ्यवद्र्धक हो गया।
मेले का आकर्षण :
यहां प्रतिवर्ष दो विशाल मेलों का आयोजन किया जाता है। पहला मेला कार्तिक शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक तथा दूसरा मेल वैशाख शुक्ल एकादशी से पूर्णिमा तक लगता है। पुरोहित संघ ट्रस्ट की ओर से पुष्कर झील के बीचों-बीच बनी छतरी पर झंडारोहण व महा आरती के साथ कार्तिक मेले की शुरुआत होती है। मेले के दिनों में ऊंटों व घोड़ों की दौड़ खूब पसंद की जाती हैं। सबसे सुंदर ऊंट व ऊंटनी को पुरस्कृत किया जाता है। दिन में लोग जहां पशुओं के कारनामें देखते रहते हैं, तो वहीं शाम का समय राजस्थान के लोक नर्तकों व लोक संगीत का होता है। तेरहताली, भंपवादन, कालबेलिया नाच और चकरी नृत्य का ऐसा समां बंधता है कि लोग झूमने लगते हैं। दूर तक फैले पर्वतों के बीच विस्तृत मैदान पर आए सैंकड़ों ग्रामीणों का कुनबा  मेले में अस्थायी आवास बना लेता है।
अन्तर्राष्ट्रीय रौनक :
मेले में देशी-विदेशी सभ्यता और संस्कृति का संगम अत्यंक आकर्षक लगता है। एक ओर जहां हजारों की संख्या में विदेशी सैलानी आते हैं तो दूसरी ओर आसपास के तमाम राज्यों के आदिवासी और ग्रामीण भी इसमें भाग लेते हैं। रंग-बिरंगे परिधानों-कुर्ती, कांचली, लहंगा, आंगी, डेवटा, पल्ला, चुनड़ी, पोमचा, बेस और जरी के कपड़े पहने ग्रामीण महिलाएं अपनी भाषा के गीत गाती हैं तो लगता है निश्छलता कंठों में स्वर बनकर छलक पड़ी है।
मंदिरों का नगर :
यों तो पुष्कर की छोटी सी नगरी में 500 से अधिक मंदिर है लेकिन प्रमुख मंदिरों से ब्रह्मा का 14वीं सदी में बनाया गया मंदिर प्रमुख है। संगमरमर की बनी सीढिय़ों से ऊपर पहुंचकर मंदिर के गर्भगृह के ठीक सामने चांदी का कछुआ बना हुआ है। इसके अतिरिक्त दूसरा प्रमुख मंदिर रंगजी मंदिर है।

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